जागरूक होता इंसान और सिसकती संवेदनाएँ
हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ मनुष्य 'जागरूक' तो है, लेकिन भीतर से 'असंवेदनशील' होता जा रहा है। तकनीक, सूचना और वैज्ञानिक प्रगति ने उसके जीवन को सुविधाजनक अवश्य बना दिया है, परंतु इस यात्रा में उसने बहुत कुछ खोया भी है—खासतौर पर वह सहज मानवीय भावनाएँ जो किसी भी समाज को जीवंत बनाती हैं।
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Sanjay Purohit
Created AT: 25 जुलाई 2025
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हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ मनुष्य 'जागरूक' तो है, लेकिन भीतर से 'असंवेदनशील' होता जा रहा है। तकनीक, सूचना और वैज्ञानिक प्रगति ने उसके जीवन को सुविधाजनक अवश्य बना दिया है, परंतु इस यात्रा में उसने बहुत कुछ खोया भी है—खासतौर पर वह सहज मानवीय भावनाएँ जो किसी भी समाज को जीवंत बनाती हैं।

एकांगी सजगता: विकास या विखंडन?

मनुष्य आज अपने अधिकारों को लेकर सचेत है, साइबर सुरक्षा से लेकर उपभोक्ता संरक्षण तक की जानकारी रखता है, स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर पहले से ज्यादा सतर्क है। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या यह सजगता ‘समग्र’ है? सामाजिक व्यवहार के स्तर पर संवेदनाओं की जो दरारें दिखती हैं, वे किसी ‘सामाजिक विखंडन’ की ओर इशारा करती हैं।

यह सजगता अधिकतर 'आत्म-केंद्रित' है—मैं क्या जानता हूँ, मेरे अधिकार क्या हैं, मुझे क्या लाभ होगा—इन सीमाओं में कैद। परंतु दूसरों के दुःख को जानने, समझने और उस पर प्रतिक्रिया देने की मानवीय क्षमता—यानी करुणा, सहानुभूति और दया—धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है।

डिजिटल मानव और संवेदनहीनता की संस्कृति

हम एक 'डिजिटल मानव' में तब्दील हो चुके हैं, जो सूचनाओं से भरपूर है पर भावनाओं से खाली। किसी पीड़ित को देखकर मदद करने की जगह वीडियो रिकॉर्ड करना अब आम प्रवृत्ति है। संबंधों को ‘रील्स’ और ‘स्टेटस’ में मापा जा रहा है, जबकि मनुष्यता मौन खड़ी सहायता की प्रतीक्षा कर रही है।

यह स्थिति केवल व्यक्तिगत नहीं है, यह सामूहिक है। इसे मनोविज्ञान में ‘इम्पैथी डेफिसिट’ (Empathy Deficit) कहा जाता है—जहाँ समाज अपने ही सदस्यों की वेदनाओं को अनुभव करने में असफल हो जाता है। यह सामाजिक मनोविज्ञान के लिये एक गंभीर चेतावनी है।

भारतीय संस्कृति और संवेदना का विस्मरण

भारतीय संस्कृति करुणा और सह-अस्तित्व की भूमि रही है। "वसुधैव कुटुम्बकम्", "सर्वे भवन्तु सुखिनः" जैसे मंत्र इसी भाव-भूमि से उपजे हैं। हमारे धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों ने सदैव मानवीय संवेदनाओं को सर्वोच्च स्थान दिया।

लेकिन आज, वही समाज जो संवेदना का प्रतीक था, ‘भावनात्मक दिवालियेपन’ की ओर बढ़ रहा है। हमने करुणा को त्यागकर सुविधा को अपनाया है, और यह त्याग हमारे सामाजिक स्वास्थ्य के लिये एक दीर्घकालिक क्षति बन सकता है।


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हम एक ऐसे समय में हैं जब इंसान ‘जानता’ बहुत कुछ है, पर ‘महसूस’ करना भूल गया है। यदि यही स्थिति बनी रही, तो आने वाला युग संवेदनाओं से नहीं, केवल संख्याओं से संचालित होगा—जहाँ आँसू होंगे पर देखने वाला कोई नहीं, और पीड़ा होगी पर समझने वाला कोई नहीं।

समाज को फिर से आत्मा से जोड़ने का समय आ गया है। केवल सूचना-सम्पन्न नहीं, ‘संवेदना-सम्पन्न’ मानव बनना ही इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। तभी हम वास्तव में 'जागरूक' कहलाने के योग्य होंगे—वरना यह सजगता भी एक मशीनी सतर्कता बनकर रह जाएगी।

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